Abstract
बघेली बघेलखंड के लोक मानस की भाषा है | लोक भाषा का निर्माण लोक जनमानस ही करता है | वही उसको जीवित रखता है,तथा वही उसका विस्तार करता है | बघेलखंड मूल `रूप से सात जिलों की सीमा में माना जाता है,किंतु लोक भाषा बघेली सात जिलों के अलावा भी कई जिलों में बोली जाती है,किंतु केंद्र में रीवा, सीधी, सतना, शहडोल, उमरिया, अनूपपुर और सिंगरौली ही है | यहीं कहीं बघेली का सुख-दुख, हंसी-खुशी, उत्साह, कलह, परिश्रम, संघर्ष, राग - विराग आदि जीवन यापन चलता है | यह क्षेत्र सदियों से आभाव और विपन्नता खेलता रहा है | समआधारित जीवन ही इसका सहारा रहा है | इसलिए इसकी लोक भाषा में जो भी लोक तत्व निकल कर आया, जो राग आया, जो गीत आये ओ सब परिश्रम के पसीने से नहाए हुए गीत है | यहां के राग में अभाव का और कष्ट का भाव सुना समझा जा सकता है | भारतवर्ष में विभिन्न प्रकार की ऋतु गीत गाए जाते हैं ,किंतु बघेलखंड के ऋतु गीतों का अपना एक अलग ही विशिष्ट महत्व है | बघेली लोक की मान्यता है कि ऋतुऐ हमेशा से प्रकृति की सहचरी रही हैं । अर्थात जिस प्रकार ऋतुओ का संबंध प्रकृति से है, उतना ही संबंध ऋतुओ का मनुष्य से भी है । प्रकृति ही ऋतुओ को बहुआयामी विस्तार देती हैं । तथा उनके गुण, स्वभाव, सुंदरता, मनोवृति - भावना को उद्घाटित करती है । ऋतु गीतों के विभिन्न स्वरूपों में उनकी मानवीय संवेदना निहित है । बघेलखंड में प्रकृति के मनोहारी स्वरूप के सभी तरफ दर्शन होते हैं । यह क्षेत्र पर्वत - पहाड़ो, बाग - बगीचो, नदी - नालो, प्रपातो विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों, घाटियों, गुफाओं, देवस्थानो,पुरातत्व की संपदा तथा प्रकृति की विभिन्न मनोहारी छवियो से युक्त है । इस भाँति यह कहना उचित प्रतीत होता है कि प्रकृति चित्रण और ऋतु चित्रण अलग-अलग होते हुए भी मनुष्य से इनका घनिष्ठ- संबंध है । ऋतुओ का नाता प्रकृति के साथ एकदम सीधा है ।दोनों का एक दूसरे के बिना पूर्ण होना संभव नहीं है । इसलिए मानस के अनेक बघेली लोकगीत ऋतु परख है । बघेली के ऋतु गीत, ऋतुओ के वैज्ञानिक गुणधर्म एवं प्रकृति के अनुरूप बने हुए हैं । इतने विविध गीत अन्य किसी लोक भाषा में नहीं है । जीवन के हर कुसंग में लोकगीत फूट पड़े, ये लोकगीत अन्य लोक भाषाओं की तरह वाचिक परंपरा में रहे हैं, और है भी । वाचिक परंपरा ही इसका सौंदर्य है । लिखित परंपरा में बोध तत्व की कमी आ जाती है । इन्हीं पारंपरिक गीतों के साथ जीवन प्रसंगों के भी गीत लोक मानस के कंठ से अनायास ही फूट पड़े हैं । ऋतु मनुष्य को सबसे अधिक प्रभावित करती है । वर्षा ऋतु हो, बसंत हो, ग्रीष्म हो या फिर शिशिर हो | सभी के गीत बघेली लोक भाषा में मिलते हैं, किंतु बारहमासी नहीं मिलते हैं | लोक समाज को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली ऋतु वर्षा ऋतु ही है । आषाढ़ मास से लेकर भादव माह तक ये तीन महीने परिश्रम के साथ-साथ उत्सवों के भी महीने है । तीज - त्यौहार, राखी, कजलियां सब इसी महीनो के अंतर्गत आते हैं । आषाढ़ माह के बूंदा-बांदी के साथ ही मन उल्लास से भर जाता है । सावन आते-आते इस ऋतु की खेती- बारी भी संपन्न हो जाती है, बोबाई का कार्य पूरा हो जाता है । एक तरफ लहलहाती फसल हो जाती है, तो दूसरी तरफ त्योहारों का रंग चढ़ जाता है । और अपने आप ही गीत निकलने लगते हैं ।
IJCRT's Publication Details
Unique Identification Number - IJCRT2208254
Paper ID - 224116
Page Number(s) - b988-b996
Pubished in - Volume 10 | Issue 8 | August 2022
DOI (Digital Object Identifier) -   
Publisher Name - IJCRT | www.ijcrt.org | ISSN : 2320-2882
E-ISSN Number - 2320-2882
Cite this article
  Aarti Soni,  Dr.HS Dwivedi,   
"बघेली लोक गीतों में ऋतु वर्णन", International Journal of Creative Research Thoughts (IJCRT), ISSN:2320-2882, Volume.10, Issue 8, pp.b988-b996, August 2022, Available at :
http://www.ijcrt.org/papers/IJCRT2208254.pdf